बहुजन समाज पार्टी के एलान से बीजेपी खुश तो दिखी लेकिन जिन 27 सीटों पर उपचुनाव होना है उन सीटों का अंकगणित कुछ और ही बयां कर रहा है।
जिन 27 सीटों पर उपचुनाव होना है, उनमे से 26 सीटें कांग्रेस के पास थीं। 2018 के चुनाव परिणाम को देखें तो अधिकांश सीटों पर हाथी की चाल उलटी रही, यही कारण था कि चंबल ग्वालियर के इलाके में हाथी ने कांग्रेस की जगह बीजेपी को करारी चोट दी।
जानकारों की माने तो अनुसूचित जाति, जनजाति और आदिवासी बाहुल्य सीटों पर भारतीय जनता पार्टी अपने पंद्रह साल के शासन काल में बसपा के परम्परागत में तोड़फोड़ करती रही है। यदि 2003 से समीक्षा की जाए तो बीजेपी ने दलित आदिवासी मतदाताओं को पार्टी से जोड़ने की कवायद के तहत कई बार अभियान शुरू किये और उसे बहुत हद तक इसमें सफलता भी मिली।
मध्य प्रदेश में बीजेपी के तीन चुनावो में लगातार जीत दर्ज करने के पीछे वह समीकरण है जो दलित आदिवासी मतदाताओं से ही पूरा होता है लेकिन 2018 में बदलाव की हवा में बीजेपी का समीकरण गड़बड़ा गया। इसके बावजूद बीजेपी ने आसानी से कांग्रेस की राह नहीं बनने दी।
चुनाव विश्लेषकों के मुताबिक बहुजन समाज पार्टी के मैदान में उतरने के बाद बीजेपी का वह दलित और आदिवासी मतदाता बहुजन समाज पार्टी की तरफ चला जाता है जो कभी बहुजन समाज पार्टी से ही बीजेपी में शामिल हुआ था।
जिन विधानसभाओं में बीजेपी का समीकरण बिगड़ता है, उन सीटों पर बसपा उम्मीदवार पंद्रह हज़ार से अधिक वोट लाता है और अंततः इसका घाटा बीजेपी को होता है।फिलहाल बीजेपी और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती उपचुनाव में अधिक से अधिक सीटें जीतने की हैं। कांग्रेस उपचुनाव में पंद्रह साल बनाम पंद्रह महीने का नारा लेकर उतरने की तैयारी कर रही है। बीजेपी के सामने सबसे बड़ी मुश्किल उसे अपने पुराने पंद्रह साल का हिसाब भी देना है और कोरोना संक्रमण, प्रवासी मजदूरों की वापसी के अलावा केंद्र सरकार से जुड़े मुद्दों पर भी अपना दामन साफ़ रखना है। इसके अलावा पार्टी के वफादारों की जगह कांग्रेस से इस्तीफा देकर आये विधायकों को टिकिट देना भी बीजेपी के लिए एक बड़ी चुनौती होगा।