2015 विधानसभा चुनाव के समय हम गया जिले के इस्माइलपुर, बहादुरपुर, बिगहा से चुड़ावन नगर गांव की तरफ जा रहे थे। एक मोड़ के पास युवकों की टोली दिखी। यह दो-तीन टुकड़ों में बैठकर ताश खेल रही थी। सारे युवक भुइयां समुदाय के थे। मैंने उनसे पूछा कि भाई रोजी-रोजगार के बदले ताश क्यों खेल रहे हो। तो युवकों ने जो कहा, उसका मतलब था कि पहले इस इलाके में स्टोन क्रशर का उद्योग काफी फल-फूल रहा था, मगर कुछ साल पहले नीतीश सरकार ने उस पर रोक लगा दी। मैंने उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि यह तो अच्छी बात है। पहाड़ खत्म हो जाएंगे तो क्या आपको अच्छा लगेगा? मगर वे इस बात पर अड़े थे कि नीतीश ने उन लोगों की रोजी-रोटी छीन ली है और इस चुनाव में उनको मजा चखाया जाएगा। उन्हें पर्यावरण का मसला समझाना मुश्किल काम था।
उन लोगों ने कहा कि धान के सीजन में गांव में जो खेती-मजदूरी का काम मिलता है, कर लेते हैं। बरसात का मौसम खत्म होता है तो औरंगाबाद जिले के दाउदनगर की तरफ निकल जाते हैं ताकि वहां के ईंट-भट्ठों में काम कर सकें। ईंट-भट्ठे मजदूरी करने के लिहाज से सबसे बुरी जगह होते हैं। फिर ये लोग ऐसी जगह क्यों जाते हैं? उन्होंने कहा, क्या करें। गांव में रोजी-रोटी का इंतजाम हो तब न। मनरेगा भी बंद है। मनरेगा रहता था तो कुछ काम मिलता था। उसी दौरान हमारे पीएम नरेंद्र मोदी संसद में कांग्रेस पर कटाक्ष कर रहे थे कि मनरेगा आपकी विफलताओं का स्मारक है, मैं इसे कभी बंद नहीं करूंगा। मगर कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन के वक्त जब असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, खासकर प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा की कहानियां सामने आईं तो केंद्र समेत सभी राज्य सरकारों को उसी मनरेगा की शरण में जाना पड़ा। केंद्र सरकार ने मनरेगा के लिए 40 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बजट जारी किया।
बिहार सरकार ने भी कहा कि वह साल 2020 में मनरेगा के जरिये 24 करोड़ मानव श्रम दिवस का काम सृजित करने जा रही है, यानी कम-से-कम 24 लाख मजदूरों को सौ दिन का रोजगार इससे मिल सकता है। जबकि पिछले साल बिहार सरकार सिर्फ 20 हजार मजदूरों को ही सौ दिन का रोजगार उपलब्ध करा पाई थी।
वैसे, नीतीश सरकार के पिछले कार्यकाल में एक वक्त ऐसा भी था जब मनरेगा में ठीक-ठाक काम मिलने के कारण मजदूरों ने बाहर जाना बंद कर दिया था। तब पंजाब और हरियाणा के किसान बिहार आकर बैठे रहते थे, मजदूरों की खुशामद करते थे। उन्हें ले जाने के लिए मोबाइल और टीवी गिफ्ट करते थे। इस कोरोना काल में भी ऐसा ही दिखा, जब देश के लगभग हर इलाके की लग्जरी बसें मजदूरों को लेने बिहार के गांव-गांव घूमती नजर आईं।
2018 के जून में एक रोज अचानक फेसबुक पर एक स्टेटस दिखा- ‘गुड न्यूजः सहरसा जंक्शन रेवेन्यू कलेक्शन में नंबर वन’। गूगल किया तो पता चला कि13 से 17 जून की अवधि में इस जंक्शन से दो करोड़ रुपये के टिकट कटे। पता चला कि पंजाब-हरियाणा में धनरोपनी का सीजन था, सारे मजदूर वहीं जा रहे थे। पांच दिनों की अवधि में इस स्टेशन से दो करोड़ के टिकट कटे हैं, तो इसका मतलब है इस अवधि में कम-से-कम 60 हजार मजदूर बाहर गए होंगे। फिर खबर आई कि दरभंगा, कटिहार, समस्तीपुर, हाजीपुर, जयनगर, मोतिहारी, बेतिया आदिहर छोटे स्टेशन पर उस दौरान मजदूरों की तकरीबन वैसी ही भीड़ थी। वे हर कीमत पर पंजाब या हरियाणा जाना चाहते थे क्योंकि वहां धनरोपनी की अच्छी मजदूरी मिलती है। इसलिए हर साल रोपनी और धनकटनी के मौके पर पूरे राज्य से लाखों मजदूर चले जाते हैं और दो-तीन महीने रहकर लौट आते हैं।
2017 में भी भीषण बाढ़ के बाद जब खेतों में कुछ नहीं बचा तो मजदूर दीवाली-छठ जैसे पर्वों का मोह छोड़ पंजाब चले गए। उन दिनों सहरसा, दरभंगा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, कटिहार-जैसे उत्तर बिहार के दूसरे इलाकों से भी रोजाना औसतन एक से सवा लाख लोग पलायन कर रहे थे। दरभंगा जंक्शन पर हमारे एक साथी को एक ऐसा युवक मिला जिसके दादा भी मजदूरी के लिए पंजाब जाते रहे थे। फिर पिता ने जाना शुरू किया और अब वह जा रहा है।
मगर जैसा कि हमने बाद में कोरोना और लॉकडाउन के दौरान देखा कि मजदूरों के पलायन और उनकी काम की परिस्थितियों के बारे में अब तक किसी सरकार के पास कोई सुस्पष्ट जानकारी नहीं है। किसी को पता नहीं था किकितने मजदूर बिहार से पलायन करते हैं और वे इस दौरान कहां रहते हैं, उन्हें कितनी आमदनी होती है। उनकी रोजगार की परिस्थितियां कैसी हैं। हम सबने देखा कि लॉकडाउन ने अचानक इस पूरी स्थिति को उघार कर रख दिया है। हर बड़े शहर से इन मजदूरों की भीड़ निकल पड़ी, अपने घर जाने के लिए। कंधे पर बैग, गोद में और उंगलियां थामे बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग। सबके सब पैदल ही घर जाने का मंसूबा बांधकर निकल पड़े। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 30 लाख के करीब मजदूर बिहार लौटे। पहले बिहार सरकार इन मजदूरों की वापसी के पक्ष में नहीं थी। वह चाहती थी किलॉकडाउन के दौरान वे जहां हैं, वहीं रहें। सरकार को ये मजदूर बोझ लगते थे, जो अपनी कमाई से अब तक बिहार के गांवों को समृद्ध कर रहे थे।
मार्च, 2020 तक बिहार सरकार का रवैया पलायन को लेकर काफी लचर था। 2020 के फरवरी में इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज, मुंबई ने बिहार और उत्तर प्रदेश से पलायन करने वाले लोगों पर अध्ययन किया। यह रिपोर्ट इशारा थी जो कोरोना काल में विस्फोट कर गई। इस रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य के हर दूसरे परिवार के लोग किसी-न-किसी वजह से पलायन करते हैं। बिहार से दूसरे राज्य पलायन करने वाले लोगों में 80 फीसदी या तो भूमिहीन हैं, या उनके पास एक एकड़ से भी कम जमीन है। मतलब साफ है कि खेती से पेट पालना उनके लिए असंभव है। पलायन करने वाले 85 फीसदी लोगों ने दसवीं तक भी पढ़ाई नहीं की। ऐसे में यह एक भ्रम है कि लोग अपने टैलेंट की वजह से बाहर बुलाए जाते हैं। 90 फीसदी लोगों को अकुशल मजदूरी का काम मिलता है। बिहार से बाहर जाकर नौकरी या रोजगार करने वाले लोग इतने सस्ते मजदूर साबित होते हैं कि वे साल में औसतन 26,020 रुपये ही कमा पाते हैं जबकि देश की राष्ट्रीय औसत प्रति व्यक्ति आय 1,35,050 रुपये तक पहुंच गई है, यानी बिहारी मजदूरों के मुकाबले पांच गुनी।
मतलब यह कि बिहार में आधे लोगों के पास दो-ढाई हजार रुपये प्रतिमाह के रोजगार का भी मौका नहीं हैं। सच यही है कि नीतीश-सुशील मोदी की जोड़ी के लगभग 15 साल तक राज के बावजूद बिहार में रोजगार संभावनाएं नहीं बढ़ीं। बिहार सरकार द्वारा 2020 में जारी आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट भी इस कड़वी सचाई को उजागर करती है। रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में सिर्फ 11.9 फीसदी लोगों के पास नियमित रोजगार है। ऐसे मजदूर जिन्हें कभी रोजगार मिलता है, कभी नहीं, उनकी संख्या32.1 फीसदी है। इन आंकड़ों के मुताबिक, राज्य के 45 फीसदी लोगों की आजीविका का आधार खेती है। मगर राज्य में 65 फीसदी लोग भूमिहीन हैं और जिनके पास जमीन है भी, उनमें से अधिकतर लघु एवं सीमांत किसान हैं। बिहार में कुल 1.40 करोड़ भूस्वामियों में से 1.28 करोड़ सीमांत किसान हैं, यानी उनके पास औसतन 0.25 हेक्टेयर जमीन ही है। राज्य की जीडीपी में खेती का हिस्सा भी 17.1 फीसदी रह गया है।
राज्य में उद्योगों की संख्यासिर्फ 2,908 है। इनसे एक लाख लोगों को ही रोजगार मिलता है और आय भी बमुश्किल 10 हजार रुपये प्रतिमाह। ऐसे में लोगों के पास पलायन का ही विकल्प बचता है। कोरोना काल में सरकार के पास उन्हें रोकने को कोरे वायदे ही थे। लिहाजा, ज्यादातर फिर पलायन कर गए जबकि मुख्यमंत्री बार-बार कह रहे थे कि जो लोग रहना चाहते हैं, उन्हें रोजगार दिया जाएगा। अब लॉकडाउन के बीच मजदूरों का पलायन शुरूहो गया है। जैसे, बिहार एक ‘रुकतापुर’ स्टेशन हो जहां प्रवासी मजदूर पर्व-त्योहार, शादी-ब्याह और कोरोना-जैसी आपदाओं के वक्तही आते हैं, फिर लौट जाने के लिए।