मौजूदा विधानसभा चुनाव (Bihar Election 2020) में भी जब दो से अधिक मोर्चे बने तो सबसे पहले सवाल यही आ रहा है कि यह राजनीतिक परिणाम को किस तरह प्रभावित करेंगे।सेक्युलर फ्रंट से किसे खतरा!
उपेंद्र कुशवाहा, बीएसपी, ओवैसी की पार्टी सहित पप्पू यादव और दूसरे सेक्युलर फ्रंट के मैदान में आने के बाद सबसे बड़ी उत्सुकता यही आ रही है कि वे किनका खेल बिगाड़ सकते हैं। अगर इन सभी दलों के पुराने रिकार्ड देखें तो इनमें से पप्पू यादव और उपेंद्र कुशवाहा के अलावा किसी भी का अधिक प्रभाव नहीं रहा है। पप्पू यादव की सीमांचल की 20 सीटों पर यादवों और मुस्लिमों में पकड़ है। वह इन सीटों पर जीतें या नहीं लेकिन दूसरों का खेल जरूर बिगाड़ सकते हैं। ऐसे में इनके मैदान में आने से आरजेडी-कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन के लिए जरूर परेशानी हो सकती है।
इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा का अति पिछड़ा वोट में पकड़ है और वह भी एक दर्जन सीटों पर परिणाम प्रभावित कर सकते हैं। अगर वह इनका वोट पाने में सफल रहे तो वे एनडीए के पारम्परिक वोट में सेंध लगा सकते हैं। जिससे उनका नुकसान हो सकता है। वहीं ओवैसी फैक्टर का कितना असर होगा, इस बारे में भी कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। सीमांचल की 23 सीटों पर ओवैसी की पार्टी के खड़े होने की उम्मीद है, जहां 40 फीसदी से अधिक मुस्लिम हैं।
जानकारों के अनुसार, ओवैसी का असर बिहार में उतना प्रभावी नहीं भी हो लेकिन उनके भाषणों से वोटरों के ध्रुवीकरण का अंदेशा है। जिसका सीधा लाभ बीजेपी को मिल सकता है। वहीं हाल के समय में सीमांचल में उनकी पकड़ भी बढ़ी है।
वाममोर्चा से कितनी मदद
इस बार सभी लेफ्ट पार्टियां एक होकर चुनाव लड़ रही है और महागठबंधन में 29 सीटें मिली हैं। इसका असर किस तरह होगा, वह देखना दिलचस्प होगा। बिहार में लगभग 50 सीटों पर लेफ्ट को वोट मिलते रहे हैं। इनका प्रमुख वोट बैंक दलितों का है। पिछले विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को दलितों का बड़ा वोट मिला था। सिर्फ माले ही तीन सीट जीती थी, जबकि 9 सीट पर नंबर दो पर थी। वह भी तब जब वह महागठबंधन और एनडीए जैसे मजबूत गठबंधन के सामने थी। इस बार अगर गठबंधन का वोट लेप्ट के वोट बैंक के साथ आपस में मिले तो यह चुनाव का सरप्राइज फैक्टर हो सकता है। मध्य बिहार में लेफ्ट की कई सीटों पर पकड़ रही है।