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इस बार बिहार जागा नहीं कि, नीतीश की किस्मत सोई, 15 साल में अर्थव्यवस्था गर्त में, अबकी भरमाने की चुनौती बड़ी Featured

  09 October 2020

नीतीश कुमार ने हाल ही में ‘सात निश्चय’ के अपने समयसिद्ध रणनीति के दूसरे संस्करण की घोषणा की है। इसका पहला संस्करण 2015 का चुनाव जीताने में नीतीश का मददगार रहा था।

लेकिन जहां तक अर्थव्यवस्था की बात है, तो इससे विकास को कोई रफ्तार नहीं मिलने जा रही है।

बिहार के आर्थिक सर्वेक्षण को जानकारी के हिसाब से सोने की खान कहा जा सकता है। इसे बिहार सरकार के लिए पटना का थिंक टैंक- एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट तैयार करता है और इसके 14वें संस्करण (2019-20) में भी तमाम तरह के राजनीतिक दबावों के बावजूद वास्तविक आंकड़ों को जगह मिली है। कहा जा सकता है कि बिहार की अर्थव्यवस्था को समझने या फिर कोई अनुसंधान के लिए यह एकमात्र विश्वसनीय दस्तावजे है।

बिहार में चुनाव सिर पर हैं, लिहाजा सबकी नजर नीतीश के पिछले पांच साल के कामकाज पर है और यह रिपोर्ट जो बता रही है, उसके मुताबिक इस दौरान विकास संबंधी तमाम मानकों पर राज्य की दुर्दशा ही रही। पूर्वोत्तर के आठ और तीन हिमालयी राज्यों को छोड़कर सामान्य श्रेणी के राज्यों में बिहार की हालत अब भी खस्ता है। प्रति व्यक्ति आय समेत तमाम मानकों पर बिहार तलहटी में ही है।

बिहार के आर्थिक सर्वेक्षण को जानकारी के हिसाब से सोने की खान कहा जा सकता है। इसे बिहार सरकार के लिए पटना का थिंक टैंक- एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट तैयार करता है और इसके 14वें संस्करण (2019-20) में भी तमाम तरह के राजनीतिक दबावों के बावजूद वास्तविक आंकड़ों को जगह मिली है। कहा जा सकता है कि बिहार की अर्थव्यवस्था को समझने या फिर कोई अनुसंधान के लिए यह एकमात्र विश्वसनीय दस्तावजे है।

बिहार में चुनाव सिर पर हैं, लिहाजा सबकी नजर नीतीश के पिछले पांच साल के कामकाज पर है और यह रिपोर्ट जो बता रही है, उसके मुताबिक इस दौरान विकास संबंधी तमाम मानकों पर राज्य की दुर्दशा ही रही। पूर्वोत्तर के आठ और तीन हिमालयी राज्यों को छोड़कर सामान्य श्रेणी के राज्यों में बिहार की हालत अब भी खस्ता है। प्रति व्यक्ति आय समेत तमाम मानकों पर बिहार तलहटी में ही है।

शराबबंदी का फैसला लेकर नीतीश ने आर्थिक नजरिये से तो राज्य की दुर्दशा कर दी, लेकिन इससे चुनावी लिहाज से उन्होंने क्या हासिल किया, इसका पता भी जल्द ही चल जाएगा। जहां तक शराबबंदी के सामाजिक फायदे की बात है, इस पर भी सवाल ही हैं, क्योंकि इससे शराब की तस्करी बढ़ गई। कई ऐसे राज्य हैं जो शराब के चलन को हतोत्साहित करने के और उपाय करते हैं।

उदाहरण के लिए, तमिलनाडु ने शराब पर भारी कर लगा रखा है और इससे होने वाली आय को वह गरीबों के कल्याण की योजनाओं पर खर्च करता है। 2017- 18 में तमिलनाडु ने शराब पर वैट से 26,797 करोड़ की कमाई की जबकि गरीबों की योजनाओं पर उसने 29,543 करोड़ का खर्च किया यानी सामाजिक क्षेत्र पर उसके कुल खर्चे का 90 फीसदी से भी ज्यादा पैसा शराब से होने वाली कमाई से निकल गया।

ग्रामीण बिहार में शराब का प्रचलन काफी अधिक है, जिसके कारण परिवार के परिवार बर्बाद हो रहे थे और नीतीश ने महिलाओं का समर्थन पाने के लिए शराबबंदी का फैसला किया। लेकिन इसके साथ ही नीतीश को आय के वैकल्पिक उपायों पर ध्यान देना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हो सका और बिहार आज तक शराब से होने वाली आय की भरपाई नहीं कर सका है और लगता नहीं कि आने वाले कई सालों के दौरान भी वह ऐसा कर सकेगा।

शराबबंदी का सकारात्मक सामाजिक प्रभाव अपने आप में एक विवाद का प्रश्न है, क्योंकि ऐसा प्रयोग दुनिया में कहीं सफल नहीं हुआ। भारत के तमाम अन्य राज्यों का अनुभव भी ऐसा ही रहा है। शराबबंदी- जैसे कदम उठाकर आय के एक बड़े स्रोत को बंद कर देने से कहीं अच्छा होता कि इसे बरकरार रखते हुए शिक्षा और जागरूकता- जैसे मदों पर अधिक खर्च किया जाता, क्योंकि शराबबंदी करके अपनी आय को कम करने के बाद सरकार ने अपने अनुत्पादक खर्चों को कम करके इसकी भरपाई की कोशिश नहीं की। 

उस राज्य की आर्थिक स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है, जिसके कुल राजस्व से ज्यादा उसे अपने कर्मचारियों के वेतन-पेंशन पर खर्च करना पड़ रहा हो। साल 2018-19 में सरकार को वेतन और पेंशन पर 35,996 करोड़ खर्च करना पड़ा, जबकि इस दौरान उसका राजस्व सिर्फ 33,539 करोड़ था। राजस्व का सीधा असर सार्वजनिक सुविधाओं के स्तर पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, 2017-18 में परिवहन पर 1,081 रुपये के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले बिहार ने प्रति व्यक्ति 570 रुपये, स्वास्थ्य पर 1,098 के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले 517 रुपये और शिक्षा पर 3,286 के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले प्रति व्यक्ति सिर्फ 2,079 रुपये खर्च किए।

बिहार में सार्वजनिक क्षेत्र की हालत भी खस्ता है और 2016-17 में राज्य में कुल 74 लोक उपक्रम थे, जिनमें से 44 काम नहीं कर रहे थे। सरकार ने अब तक इन उपक्रमों में 53,892 करोड़ का निवेश किया है। इनमें 16,500 कर्मचारी काम करते हैं और इनमें से केवल 10 कंपनी ऐसी हैं, जो लाभ में हैं। साल 2016-17 में इन मुट्ठी भर कंपनियों ने 278 करोड़ का लाभ कमाया, जिसमें से सरकार को लाभांश के रूप में एक छोटी-सी रकम मिली। इसी अवधि के दौरान सार्वजनिक उपक्रमों की कुल हानि 4,300 करोड़ से भी अधिक रही।

चुनाव के इस मौसम में नीतीश ने हाल ही में ‘सात निश्चय’ के अपने समयसिद्ध रणनीति के दूसरे संस्करण की घोषणा की है। इसका पहला संस्करण 2015 का चुनाव जीतने में नीतीश का खासा मददगार रहा था। नए संस्करण में युवाओं के लिए कौशल कार्यक्रम, महिलाओं के लिए उद्यमिता कार्यक्रम, किसानों के लिए सिंचाई सुविधा, अतिरिक्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की तरह ही महिलाओं के लिए अपना काम शुरू करने के लिए 10 लाख रुपये की मदद जैसे तमाम उपाय शामिल हैं।

लेकिन जहां तक अर्थव्यवस्था की बात है, यही कहा जा सकता है कि यह नई बोतल में पुरानी शराब है और इससे विकास को कोई रफ्तार नहीं मिलने जा रही। साल 2005, 2010 और 2015 में चुनाव जीतने के बाद नीतीश कुमार 2020 के चुनाव के मुहाने पर खड़े हैं और मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए में होने का भी उन्हें बहुत लाभ होता नहीं दिख रहा। ऐसे में इस बार उनके लिए चुनौती काफी बड़ी है, इसमें कोई शक नहीं।

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