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कोविड संकट के लिए ‘सिस्टम’ नहीं, मोदी का इसे व्यवस्थित रूप से बर्बाद करना दोषी है: अरुण शौरी Featured

  14 May 2021

पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने द वायर  से बात करते हुए देश के कोविड संकट के लिए नरेंद्र मोदी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया और कहा कि सरकार लोगों को उनके हाल पर छोड़ चुकी है, ऐसे में अपनी सुरक्षा करें और एक दूसरे का ख़याल रखें.

नई दिल्ली: बीते सात सालों से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी नरेंद्र मोदी सरकार के बड़े आलोचक रहे हैं. द वायर  के साथ बातचीत में उन्होंने देश में कोविड-19 गंभीर स्थिति पर चर्चा की. सरकार के समर्थकों द्वारा इसे ‘सिस्टम’ की विफलता बताने पर शौरी ने  कहा कि मोदी इसकी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते हैं. बातचीत के प्रमुख अंश.

भारत में रोजाना संक्रमण के जितने मामले आ रहे हैं, उतने पूरे विश्व में मिलाकर नहीं आ रहे हैं, वहीं देश में हो रही मौतें दुनियाभर की करीब तिहाई हैं. और ये सब आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से हैं, जो कहा  कि असल से कम ही हैं. देश के मौजूदा हालात को लेकर क्या कहेंगे?

अरुंधति रॉय ने इसके लिए बिल्कुल ठीक शब्द इस्तेमाल किए हैं- ‘मानवता के खिलाफ अपराध.’

‘अपराध’ शब्द दिखाता है कि यह किसी के द्वारा किया गया है, लेकिन आज सत्ता प्रतिष्ठान का जो कहना है, और जिसे मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा दोहराया भी जा रहा है वो यह है कि ये किसी एक व्यक्ति या एक समूह का किया-धरा नहीं है, बल्कि इसका जिम्मेदार ‘सिस्टम’ है.

और इस ‘सिस्टम’ की जिम्मेदारी किसकी है? बेचारे पंडित नेहरू की? अंग्रेजों की? या उससे भी बेहतर मुगलों की?

क्या समस्या ये है कि ‘सिस्टम’ ने हमें सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग दिए हैं? या ये कि आज उनका गलत इस्तेमाल हो रहा है.

आप एक पल के लिए गुजरात के बारे में सोचिये. क्या यह ऑक्सीजन की कमी से जान गंवा रहे मरीजों के मामले में, अस्पतालों में आग लगने के मामलों में पूरे देश से कहीं बेहतर कर रहा है? और भाजपा कितने सालों से इस राज्य में सत्ता में है? कितने सालों तक गुजरात का ‘सिस्टम’ प्रधानमंत्री के हाथों में था.

यह ‘सिस्टम’ नहीं है. और जो एक शब्द चल रहा है, यह ‘सिस्टेमैटिक’ (व्यवस्था की) विफलता नहीं है. यह सिस्टम का व्यवस्थित तरीके से बर्बाद किया जाना है, जो इस स्थिति का जिम्मेदार है.

तो आपके हिसाब से सिस्टम की इस व्यवस्थित बर्बादी के लिए कौन जिम्मेदार है?

निश्चित तौर पर जो शासन संभाल रहा है. जब चुनावों में स्पष्ट तौर पर धोखाधड़ी होती है- जब भाजपा एक सांप्रदायिक अभियान छेड़ती है, जब चुनाव को सात चरणों तक खींचा जाता है- तब क्या इसका कारण ये है कि संविधान ने यह बताया था कि चुनाव आयोग होना चाहिए.

या फिर वो भ्रष्ट तरीका, जिससे आयोग संभालने वाले अपना कर्तव्य निभाते हैं? जब चुनावी बॉन्ड के साफ दिख रहे छल पर सुप्रीम कोर्ट अपनी आंखें मूंद लेता है, तब क्या वो ‘सिस्टम’ जिम्मेदार है जो शीर्ष अदालत की व्यवस्था देता है या फिर वो मुख्य न्यायाधीश और बाकी जज जो फैसले लेते हैं?

और केवल वो नहीं जो चुनाव आयोग या अदालतों में बैठे हैं, बल्कि वो भी जिन्होंने उन्हें वहां पहुंचाया और वो भी, जो तमाम तरीकों से यह सुनिश्चित करते हैं कि ये नामित किए गए लोग वही निर्णय लें, जो इन्हें यहां पहुंचाने वालों के लिए फायदेमंद साबित हों.

तो जब आज आप संस्थानों की हालत देखते हैं तो इसके लिए मौजूदा सत्ताधीश जिम्मेदार हैं, जिन्होंने इन्हें रीढ़विहीन जी हुजूरी करने वालों से भरा है- और इसका साफ अर्थ है कि प्रधानमंत्री, उनके अलावा किसी का कोई महत्व नहीं है.

22 अप्रैल 2021 को दिल्ली का एक श्मशान घाट. (फोटो: रॉयटर्स)

22 अप्रैल 2021 को दिल्ली का एक श्मशान घाट. 

मैं आपकी बात समझता हूं लेकिन वर्तमान कोविड-19 संकट, ऑक्सीजन की अनुपलब्धता, दूसरी लहर का अनुमान न लगा पाने, टीकाकरण अभियान को जीएसटी से भी खराब तरह से लागू करने में चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट का कोई हाथ नहीं है. व्यवस्था के यूं धराशायी होने के बारे में क्या कहेंगे?

उन स्वास्थ्य मंत्री को किसने चुना, जिसने स्वेच्छा से ये घोषणा की कि कोरोना वायरस के खिलाफ ‘एंडगेम’ शुरू हो चुका है. कौन कह रहा था कि ऑक्सीजन की कमी नहीं है जब लोग इसके बिना मर रहे थे? कौन था जो मीडिया के सामने खड़े होकर रामदेव की दवाई यह कहकर लॉन्च कर रहा था कि यह ‘डब्ल्यूएचओ प्रमाणित’ है? ऐसे मंत्री को किसने चुना, जो राज्यों से उनके यहां बेहतर तरह से ऑक्सीजन ‘मैनेज’ करने को कह रहा था- मानो उन्हें यह करना चाहिए कि मरते हुए लोगों से कहें कि कम ऑक्सीजन लो?

लेकिन यह किसी असहाय स्वास्थ्य मंत्री या किसी और मंत्री का मसला नहीं है. याद कीजिए, फरवरी में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में खुद प्रधानमंत्री ने क्या कहा था- कि भारत ने कोविड-19 को परास्त कर दिया है और यह अब दुनिया को बचा रहा है. सिविल सेवाओं के महत्वपूर्ण पदों पर बिना रीढ़ के जी हुजूर किसने भरे हैं?

कुछ लोग कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री को उनके चाटुकारों के किए और उनकी कही गई बातों के लिए दोषी नहीं ठहराना चाहिए.

देखिए, गलती न करें. जो चुनने का जिम्मा लेता है, वह ध्यान से उस व्यक्ति को चुनता है, जो समय आने पर चयनकर्ता के विश्व गुरु होने की घोषणा करता है (जैसा कि हर्षवर्धन ने मोदी को बताया) या उसे भारत के लिए ‘भगवान का तोहफा’ कहता है. (जैसा वेंकैया नायडू ने उन्हें कहा था)

उस संकल्प को याद करें, जो भाजपा के राष्ट्रीय निकाय ने प्रधानमंत्री के अद्वितीय, दूरदर्शी नेतृत्व को स्वीकार करते हुए पारित किया था, जिसने कोविड -19 पर विजय पा ली थी और भारत को दुनिया का रक्षक बना दिया था. क्या कोई मानता है कि आज भी कोई भाजपा है, जो प्रधानमंत्री से स्वतंत्र है? उस भाजपा के बारे में कुछ नहीं कहना जो अपनी कल्पना के बल पर एक प्रस्ताव का मसौदा तैयार करने में सक्षम होगी? क्या किसी को लगता है कि डॉ. हर्षवर्धन मनमोहन सिंह के सुझावों का अश्लील और बेवकूफ़ जवाब दे सकते हैं?

क्या एक स्टेडियम का नाम सरदार पटेल से बदलकर नरेंद्र मोदी रखने के लिए राष्ट्रपति उत्तरदायी हैं? देश में प्रतीक और नाम (अनुचित उपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1950 काम करता है, जिसके अनुसार, प्रधानमंत्री के नाम का किसी भी संगठन या भवन या घटना के लिए इस्तेमाल लिखित रूप में उनकी या किसी नामित अधिकारी की अनुमति के बिना किया ही नहीं जा सकता है.

निश्चित तौर पर मोदी ही महत्वपूर्ण जगहों पर ऐसे लोगों के चयन के लिए जिम्मेदार है, लेकिन…

लेकिन उनकी जिम्मेदारी इससे अधिक की भी है! क्या इन डरे हुए चूहों में से किसी ने फरमान सुनाया कि आपको बड़ी-बड़ी  रैलियां करनी चाहिए? क्या ‘सिस्टम’ ने ऐसा हुक्म दिया था, क्या इन भयभीत चूहों में से एक ने आज्ञा दी थी कि आप कम संसाधनों को टीकाकरण और ऑक्सीजन संयंत्रों पर नहीं बल्कि अहंकारी परियोजनाओं- अपने लिए एक विमान, एक नया घर, एक नए राजपथ पर खर्च करें? 25,000 करोड़ रुपये इन परियोजनाओं पर खर्चे गए- चीन से आए उस प्रतिमा के ढांचे के 3,500 करोड़ रुपये की तो गिनती ही नहीं की है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. 

क्या आप मानते हैं, जैसा कि रामचंद्र गुहा ने द वायर के साथ हालिया साक्षात्कार में कहा है कि मौजूदा तबाही प्रधानमंत्री मोदी की ‘शासन शैली’ का प्रत्यक्ष परिणाम है.’ क्या हम उससे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वह बंगाल के चुनाव परिणाम के चलते इसे बदलेंगे?

इस तरह की किसी भी चीज की अपेक्षा करना अति मूर्खता होगी. शासन की ‘वर्तमान शैली’ में कुछ ऐसा नहीं है जिसे आप आर्गेनाईजेशन चार्ट पर बक्से फेरबदल करके बदल सकते हैं. यह उनके स्वभाव में है. सरकार, कंपनियों आदि के प्रमुखों के साहित्य में डार्क ट्रायड (स्याह त्रयी) की बात कही गई है. इसके तीन तत्व हैं.

सबसे पहले, आत्ममुग्धता. इसका एक पहलू खुद नाम से स्पष्ट है: व्यक्ति खुद से ही प्यार करता है, वह खुद को ही इतना आकर्षक समझता है. यह ट्रंप में व्यापक रूप से स्पष्ट था. यहां आप इसे अपना नाम छपे सूट से लेकर स्टेडियम तक और टीकाकरण पैक पर उनकी तस्वीर में देखते हैं.

लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है. कहीं अंदर गहरे में इस आत्ममुग्ध व्यक्ति को पता होता है कि वह ऐसा नहीं है जैसा उसने खुद को बनाया है. और इसलिए वह बहुत नर्वस, असुरक्षित व्यक्ति है. वह खुद को लगातार संवार रहा है, बार-बार संवार रहा है. और इसी कारण से वह विशेषज्ञता से घबराया हुआ है. वह अनिवार्य रूप से औसत दर्जे के व्यक्तियों से खुद को घेर लेता है. वह खुद को एक इको चेंबर में बंद कर लेता है. और फिर आपको मिलती है वह ‘शासन प्रणाली’, जहां अनंत तक दूसरे दर्जे के व्यक्ति तीसरे को चुनते है, जिससे अव्यवस्था उत्पन्न होती है.

वह असुरक्षित है, उसे हर दिन खुद को आश्वस्त करना है कि वह अब भी सुंदर है, वह अब भी मजबूत है, और अब भी बाकी लोग उससे डरते हैं. वह उनसे बचाव न किए जा सकने वाली बातों का बचाव करवाता है- कल यह नोटबंदी थी, आज महामारी से ठीक से न निबट पाना है. यदि वे केवल बचाव कर रहे होते, जो सही होता, तो उससे भी यह साबित नहीं होता कि उनके पास अब ताकत नहीं है. वे सब उनसे डरते हैं, ये तब दिखता है जब वे घोषणा करते हैं कि नोटबंदी एक मास्टरस्ट्रोक था. ऐसा तब नजर आता है जब वर्तमान संकट के दौरान उठाए गए गलत क़दमों को दूरदर्शी नेतृत्व कहकर सराहा जाता है.

यही कारण है कि अपने सहयोगियों के लिए उनमें कोई इज्जत नहीं है, न ही लोगों के प्रति है. ‘क्या कहा तुमने, लोग मर रहे हैं? तो मुझे ऐसे समय पर अपना नया घर नहीं बनवाना चाहिए? हां, वे मर रहे हैं और मैं ऐसे में भी अपना नया घर बनवाऊंगा जब वे मर रहे हैं. क्या कर सकते हो तुम?

और दूसरा तत्व?

डार्क ट्रायड की दूसरी विशेषता मैकियावेलियनिस्म है. ऐसे व्यक्ति हर अवसर हर आदमी पर नजर रखते हैं. जैसे ही उनका किसी व्यक्ति, घटना से सामना होता है, उनके दिमाग में एक ही विचार आता है,’मैं इस व्यक्ति, घटना या आपदा का क्या इस्तेमाल कर सकता हूं?

देखिए कि किस तरह अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए एक भयानक संकट का उपयोग किया जाता है. याद कीजिए उन विपरीत तरीकों को जिनसे वे निज़ामुद्दीन मरकज़ और हाल ही में हुए कुंभ की भीड़ से निपटते हैं.

उस तरीके को देखिये, जिससे आज पीएम केयर्स फंड को वैध बनाने की मांग की गई है. यह देखिए कि किस तरह से राज्यों के माथे दोष मढ़ा जा रहा है और सत्ता को और केंद्रीकृत करने के लिए इस अव्यवस्था का इस्तेमाल किया जा रहा है. केंद्र घोषणा करता है, ’18 से ऊपर के सभी लोग टीका लगवा सकते हैं,’ लेकिन स्टॉक ही नहीं है, ‘हमने फैसला किया है कि आप सभी को टीका मिले लेकिन राज्य इस निर्णय को लागू नहीं कर रहे हैं. और इसलिए हम इस मामले को अपने हाथों में लेने के लिए मजबूर हैं… ‘

शब्दों के मायाजाल भी इसीलिए बिछाए जा रहे हैं. उनकी कोई पवित्रता नहीं है. सत्य कुछ निरपेक्ष नहीं है. आप वो कहते हैं जो सुविधाजनक है, उस समय जो सुविधाजनक होता है, आप वो जुमला निकाल देते हैं. कि आपने एक रेलवे स्टेशन पर चाय बेची है – तो क्या हुआ अगर उस समय स्टेशन नहीं था? कि आपके पास एक डिग्री है- तो क्या हुआ यदि यह एक ऐसे विषय में है जिसका कभी अस्तित्व नहीं था? तो क्या हुआ अगर यह तब छपी, जब डिग्री हाथ से लिखी जाया करती थीं, तो क्या हुआ अगर इसे एक ऐसे फॉन्ट में मुद्रित किया गया जो सालों बाद तक अस्तित्व में नहीं था? कि आप 25,000 फीट की ऊंचाई तक पैदल चले थे…

यह सब तब और आसान है कि यदि आप एक संस्कृति, एक ऐसे संगठन से आते हैं, जहां मिथकों को तथ्यों में ढाला जाता है. कि हजारों साल पहले हमारे पास रॉकेट और हवाई जहाज थे, कि हमारे पास प्लास्टिक सर्जरी थी, कि हमारे पास इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन था … फिर तो यह घोषित करना पूरी तरह से आसान है कि सिकंदर बिहार तक आया था और यह कि बिहारी वीरता ने उसे मध्य एशिया में वापस भेजा. आप ऐसी बातें आसानी से कह सकते हैं और जब सुविधाजनक हो उन गांधीजी का गुणगान भी कर सकते हैं, जो मानते थे कि सत्य ही ईश्वर है.

ऐसे व्यक्ति केवल घोषणा नहीं करते बल्कि एक दिन विश्वास करने लगते हैं कि हमने कोविड -19 पर जीत हासिल की है और वो भी पूरी तरह से हमारे ही प्रयासों से, कि हम आत्मनिर्भर बन गए हैं. और अगले दिन यह मान लेते हैं कि चालीस देशों ने हमें मुश्किल से निकालने के लिए मदद भेजी है जो भारतीय कूटनीति की सफलता का प्रतीक है.

और तीसरा?

तीसरा है मनोरोग, इसका सबसे बड़ा तत्व है पछतावे का नामोनिशान न होना. क्या पिछली बार प्रवासी मजदूरों के मामले में आपने जरा-सी भी ग्लानि देखी? पिछले चार महीनों में उनके दिए गए सैंकड़ो भाषणों में आपने उनके बारे में एक भी हमदर्दी का शब्द सुना जो ऑक्सीजन की कमी से मारे गए?

और हमें इस भुलावे में बिल्कुल नहीं रहना चाहिए कि इस खेप में बस एक मनोरोगी है. यह इनकी संस्कृति में है. देखिए, हरियाणा के मंत्री ने क्या कहा जब उन्हें बताया गया कि श्मशान घाट के दृश्यों से पता चलता है कि कोविड-19 से मरने वालों के आधिकारिक आंकड़े बहुत कम हैं. उन्होंने कहा, ‘इस मुद्दे पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है, मरने वाले वापस नहीं आएंगे.’

इतिहास बताता कि इन विशेषताओं वाले नेता को लगता है कि उसने कोई गलत काम नहीं किया है.

बिल्कुल सही बात है. आपको पता है कि ऐसे लोग रात को सोते कैसे हैं? बहुत आराम से! क्योंकि उन्होंने खुद को ये भरोसा दिला दिया होता है कि वे जो भी कर रहे हैं वो एक बड़े हित के लिए है. हम जैसे साधारण लोग जलती चिताओं को देखकर हिल जाते हैं और मरने वालों की संख्या को दबाए जाने के खिलाफ हो जाते हैं. लेकिन वह ऐसा कर रहे हैं कि ‘लोगों का मनोबल डूबने से बचा रहे.’

और इस तरह से सोचना, ‘सकारात्मक’ तौर से सोचना उनकी आदत में शुमार हो जाता है. हां, यहां तबाही आ रखी है. लेकिन दूसरी तरफ देखिए, क्या कोई लद्दाख के उन इलाकों के बारे में बात कर रहा है जिन्हें चीन ने खाली करने से मना कर दिया है? क्या कोई किसान आंदोलन की बात कर रहा है? यह तरीका है आगे बढ़ने का: ‘हमें सकारात्मकता फैलानी चाहिए,’ यह दत्तात्रेय होसबले कहते हैं जो आरएसएस के अगले प्रमुख होंगे.

यह सब कहां ख़त्म होता?

अंत में ऐसे नेता पूरी तरह खत्म हो जाते हैं. जिस तरह एक झूठ दूसरे झूठ के लिए मजबूर करता है, वैसे एक निरंकुश कदम अगले के लिए रास्ता बनाता है.

महामारी के दूसरी लहर के दौरान कानपुर का एक अस्पताल. (फोटो: पीटीआई)

महामारी के दूसरी लहर के दौरान कानपुर का एक अस्पताल. 

जो तस्वीर आप दिखा रहे हैं, वह बहुत सुखद नहीं है, ऐसे में नागरिकों को क्या करना चाहिए?

सबसे पहले और सबसे जरूरी तो यह कि हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए. नसीरुद्दीन शाह एक बेहद उम्दा कलाकार हैं, उन्होंने इसे बेहतरीन तरीके से कहा है- सवाल ये नहीं कि बस्तियां जलाईं किसने, सवाल है कि उसके हाथ में माचिस किसने दी?

दूसरा, इस बार आपराधिक तौर पर अपने फर्ज न निभाए जाने को याद रखिए- कर्तव्यों को ऐसे छोड़ दिया गया जहां आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से ही ढाई लाख लोगों ने अपनी जान गंवा दी. झूठों को याद रखिए. यह भी याद रखिए कि यह दुर्घटनावश नहीं हुआ है. यह सब उनके जींस में है. इस अपराध को दर्ज करिए, झूठों को लिखिए, जिससे अगली बार उन्हें जल्दी पहचान लिया जाए.

तीसरा, उन जगहों पर बाज़ की तरह नजर रखिए, जहां वे इस तबाही के जरिये अपना एजेंडा साध रहे हैं या साधेंगे. मसलन, शक्तियों का और अधिक केंद्रीकरण करने के लिए. इसे नाकाम करने के लिए इन तथ्यों को दुनिया के सामने रखना होगा. 1. उन्हें वैधता चाहिए- उनसे जो अभी उनके वश में नहीं है, उनसे जो भक्त या कमबख़्त नहीं हैं. 2. उनकी अक्षमता उन्हें बार-बार विदेश से मदद लेने के लिए मजबूर कर देगी. इसलिए दुनिया को राजी करें कि बिना शर्त मदद न करें. अन्य देशों को उन व्यावसायिक अवसरों से परे देखने के लिए तैयार करें, जो उन्हें भारत या चीन जैसे देश देते हैं.

चौथा, सत्ताधीशों के इस प्रोपगैंडा कि वे वो ये कर रहे हैं-वो कर रहे हैं, में न आएं. तथ्य यही है कि सरकार ने हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया है. खुद को बचाएं- मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग, वैक्सीन, एक-दूसरे की मदद. सबसे बड़ा उदाहरण नर्सों और डॉक्टरों का है, गुरुद्वारों का है, उन वालंटियर्स का जो देशभर में काम कर रहे है- उसे अपनी प्रेरणा बनाएं.

पांचवा और सबसे जरूरी: जिस तरह इस आपदा ने हर आपदा की तरह कुछ बहुत अच्छी चीजें सामने लाई हैं, वहीं कुछ बहुत ख़राब बातें भी सामने आई हैं- दवाओं में मिलावट, कालाबाजारी, वो रिश्वतें जो अस्पताल के बेड, ऑक्सीजन और अंतिम संस्कार के लिए दी गई हैं…  यह घृणास्पद लालच जलती हुई चिताओं की तरह ही सामने दिख रहा है. और हम खुद को गांधी और बुद्ध का देश कहते हैं. जब हम शासकों को सुधारने की बात करते हैं, तो हमें खुद को भी इस लालच से मुक्त करना चाहिए, हमारे बीच के लालचियों और अमानवीय लोगों को सामने लेकर उन्हें दंडित किया जाना चाहिए.

 

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